Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-


107 . वैशाली में मगध महामात्य : वैशाली की नगरवधू

वैशाली के जनपद में इस बार फिर भूकम्प हुआ। वैशाली के महान् राजमार्ग पर एक दीर्घकाय ब्राह्मण पांव -प्यादा धीर - मन्थर गति से संथागार की ओर बढ़ रहा था । उसके पांव नंगे और धूलि - धूसरित थे, कमर में एक शाण - साटिका और कन्धे पर शुभ्र कौशेय पड़ा था , जिसके बीच से उसका स्वच्छ जनेऊ चमक रहा था । इस ब्राह्मण का वर्ण गौर, मुख मुद्रा गम्भीर और तेजपूर्ण नेत्र, दृष्टि पैनी, ललाट उन्नत , कन्धे और ग्रीवा मांसल , होंठ संपुटित , भालपट्ट चन्दन - चर्चित नंगे सिर पर शतधौत हिमश्वेत चोटी । वह अगल - बगल नहीं देख रहा था , उसकी दृष्टि पृथ्वी पर थी ।

उसके निकट आने तथा साथ चलने की स्पर्धा वैशाली में कोई नहीं कर सकता था । उससे पचास हाथ के अन्तर पर दो सहस्र ब्राह्मण नंगे पैर , नंगे बदन , नंगे सिर , केवल शाटिका कमर में पहने और जनेऊ हाथों में ऊंचे किए चुपचाप चल रहे थे। उनके पीछे सहस्रों नागरिक, ग्रामीण , सेट्ठि , सामन्त , विश, कम्मकर और अन्य पुरुष थे। घरों के झरोखों से मिसिका और अलिन्दों से कुलवधू , गृहपति पत्नियां आश्चर्य, कौतूहल और भीत मुद्रा से इस सूर्य के समान तेजस्वी ब्राह्मण को देख रहे थे । सब नि : शब्द चल रहे थे। सभी मन - ही -मन भांति - भांति के विचार कर रहे थे। कोई कानों - कान फुसफुसाकर बात कर रहे थे ।

यह ब्राह्मण विश्वविख्यात राजनीति का ज्ञाता, मगध का पदच्युत दुर्धर्ष अमात्य वर्षकार था । उसके राजविग्रह , राजकोप तथा राजच्युति के समाचार प्रथम ही विविध रूप धारण करके वैशाली में फैल गए थे।

संथागार के प्रांगण में वैशाली - गण - संघ के अष्टकुल - प्रतिनिधियों ने महामात्य का स्वागत किया और वे सब तेजस्वी ब्राह्मण को आगे कर संथागार में ले गए, जहां महासन्धिविग्रहिक जयराज और विदेश - सचिव ने आगे बढ़कर अमात्य का प्रति सम्मोदन करके अभ्यर्थना की । फिर उन्होंने उससे एक निर्दिष्ट आसन पर बैठने का अनुरोध किया । अमात्य ने अनुरोध नहीं माना और वह दो पग आगे बढ़कर वेदी के सम्मुख आ खड़े हुए । तब अमात्य ने जलद - गम्भीर वाणी से कहा - “ हुआ , बहुत शिष्टाचार सम्पन्न हुआ , परन्तु वज्जी के अष्टकुल भ्रम में न रहें । मैं आज मगध का अमात्य नहीं एक दरिद्र ब्राह्मण हूं । उदर के लिए अन्न की याचना करने आया हूं। अष्टकुल के गण - प्रतिनिधि ब्राह्मण को अन्न दें , तो यह ब्राह्मण राजसेवा करने को प्रस्तुत है। ”

विदेश - सचिव नागसेन ने आसन से उठकर कहा - “ आर्य अपने व्यक्तित्व में ही सुप्रतिष्ठित हैं । यह मगध का दुर्भाग्य है कि उसे आपकी राजसेवा से वंचित रहना पड़ा है , परन्तु राजसेवा के प्रतिदान का कोई प्रश्न नहीं है , वज्जीसंघ आर्य का वज्जी - भूमि में सम्मान्य अतिथि के रूप में स्वागत करता है। ”

“ सुनकर आश्वस्त हुआ , अष्टकुल का कल्याण हो ! यद्यपि मैं ब्राह्मण हूं , किन्तु भिक्षोपजीवी नहीं । वज्जीगण यदि राजसेवा लेकर अन्न दें तो मैं लूंगा, नहीं तो नहीं। ”

“ यह आर्य का गौरव है, परन्तु आर्य यह भली- भांति जानते हैं कि वज्जी - शासन में मात्र अष्टकुल के प्रतिनिधि ही सक्रिय रह सकते हैं -वर्णधर्मी आर्य नहीं । यह हमारी प्राचीन मर्यादा है । ”विदेश- सचिव नागसेन ने कहा ।

“ यह मैं नहीं जानता हूं । आयुष्मान् को सशंक और सावधान रहना चाहिए , यह भी ठीक है। परन्तु शासन में सक्रिय होने की मेरी अभिलाषा नहीं है । मैं तो अन्न का मूल्य देना चाहता हूं । ”

“ क्यों आर्य यह आज्ञा करते हैं , जबकि वज्जियों का यह संघ आर्य का सम्मान्य अतिथि के रूप में स्वागत करने को प्रस्तुत है ? ”

“ ठीक है, परन्तु आयुष्मान् पूज्य - पूजन की भी एक मर्यादा है। मैं अतिथि तो हूं नहीं, जीविकान्वेषी हूं अर्थी हूं! ”.

“ तो आर्य प्रसन्न हों , वज्जीगण संघ को आशीर्वाद प्रदान करते रहें , आर्य की यही यथेष्ट सेवा होगी। ”

“ भद्र, मैं राजपुरुष प्रथम हूं और ब्राह्मण पीछे। मैं आशीर्वाद देने का अभ्यासी नहीं . राजचक्र चलाने का अभ्यासी हूं । ”

जयराज सन्धिविग्रहिक ने गणपति सुनन्द का संकेत पाकर खड़े होकर कहा

“ तब आर्य यदि वज्जीगण के समक्ष मगध- सम्राट् पर आर्य के प्रति कृतघ्नता अथवा अनाचार का अभियोग उपस्थित करते हैं , तो गण- सन्निपात उस पर विचार करने को प्रस्तुत हैं । ”

“ मगध- सम्राट् वज्जीगण का विषय नहीं है आयुष्मान्, इसलिए वज्जीगण सन्निपात इस सम्बन्ध में विचार नहीं कर सकता । फिर मेरा कोई अभियोग ही नहीं है, मैं तो अन्न का इच्छुक हूं। ”

“ तब यदि आर्य वजीसंघ में राजनियुक्त हों और वज्जीसंघ यदि मगध पर अभियान करे , तब आर्य कठिनाई में पड़ सकते हैं । ”

“ कठिनाई कैसी, आयुष्मान् ? ”

“ द्विविधा की , आर्य! ”

“ परन्तु वज्जीसंघ मगध पर अभियान क्यों करेगा ? उसकी तो साम्राज्य-लिप्सा नहीं है। ”

“ नहीं वज्जीसंघ न अभियान करे, मगध ही वजी पर अभियान करे , तब आर्य क्या करेंगे ? ”

“ जो उचित होगा, वही!

“ और औचित्य का मापदण्ड क्या होगा -विवेक , न्याय या राजनीति ? ”

“ राजनीति आयुष्मान् ! ”

“ किसकी राजनीति, आर्य ? ”जयराज ने हंसकर कहा।

कुटिल ब्राह्मण क्रोध से थर - थर कांपने लगा, उसने कहा

“ मेरी ही राजनीति , आयुष्मान् ! ”

“ तो आर्य क्या ऐसी आज्ञा देते हैं कि भविष्य में वज्ज़ियों का गण - शासन आर्य की राजनीति का अनुगमन करें ? ”

“ यदि यह ब्राह्मण उसके लिए हितकर होगा तो उसे ऐसा ही करना चाहिए। ”

“ तो आर्य, यह गण-नियम के विपरीत है । यह साम्राज्य -विधान में सुकर है गण शासन में नहीं। गण - शासन सन्निपात के छन्द के आधार पर ही शासित हो सकता है । ”

“ तो वज्जीसंघ आश्रित ब्राह्मण को आश्रय नहीं दे सकता है ? ”

अब गणपति सुनन्द ने कहा -

“ आर्य, आप भलीभांति जानते हैं कि हमारा यह संघशासित तन्त्र सर्वसम्मति से चलता है, इसलिए इस सम्बन्ध में सोच-विचारकर जैसा उचित होगा , आर्य से परामर्श करके निर्णय कर लिया जाएगा । तब तक आर्य वज्जी -गणसंघ के प्रतिष्ठित अतिथि के रूप में रहकर संघ की प्रतिष्ठा - वृद्धि करें । ”

“ तो गणपति राजन्य , ऐसा ही हो ! ”

आर्य वर्षकार ने हाथ ऊंचा करके कहा - “ तब तक मैं दक्षिण -ब्राह्मण- कुण्डग्राम सन्निवेश में आयुष्मान् सोमिल श्रोत्रिय का अन्तेवासी होकर ठहरता हूं । ”

विदेश - सचिव ने कहा - “ जिसमें आर्य प्रसन्न हों ! तब तक आर्य की सेवा के लिए सहस्र स्वर्ण प्रतिदिन और यथेष्ट दास -दासी संघ की ओर से नियुक्त किए जाते हैं ! ”

वर्षकार ने मौन हो स्वीकार किया और संथागार त्यागा ।

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